लोग जाएँ भाड़ में

लोग जाएँ भाड़ में

– प्रशांत भूषण

आखिरकार, हमें उच्चतम कोटि के विशेषज्ञों ने जता दिया है। उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश श्री ए. एस. आनंद और न्यायमूर्ति श्री बी. एस. किरपाल ने यह निर्णय दिया है कि बड़े बाँध पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुँचाते हैं। ये विस्थापितों के हालात को बेहतर बनाते हैं, और दरअसल किसी भी देश की आर्थिक समृद्धि के लिए ये आवश्यक है।

सरदार सरोवर परियोजना पर दिए गए फैसले में इन महानुभावों के अपने शब्दों में, “अनुभव यह नहीं जतलाता कि बड़े बाँधों के निर्माण में लगाई गई लागत का फल लाभप्रद नहीं होता. या पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय ह्रास का कारण बनता है। इसके विपरीत बड़े बाँधों के निर्माण से पारिस्थितिकीय उन्नयन ही हुआ है।” वे कहते हैं, “याचिकाकर्ता एक भी ऐसी मिसाल नहीं दे पाए हैं, जिससे यह साबित होता है कि एक बाँध के निर्माण से कुल मिलाकर पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।”

वे आगे कहते हैं कि अनचाहे विस्थापन के अधिकतर मामलों में विस्थापन के बाद ‘विस्थापित’ बेहतर हाल में ही रहे हैं। “एक सही तरीके से तैयार की गई राहत व पुनर्वास योजना विस्थापितों के जीवन स्तर को बेहतर ही बनाएगी। उदाहरण के लिए, भाखरा नंगल बाँध, नागार्जुन सागर बाँध, टिहरी बाँध, भिलाई इस्पात कारखाना, बोकारो व बाला लौह इस्पात कारखाना व ऐसी ही कई अन्य विकास परियोजनाओं के आसपास के गाँवों के निवासी उन लोगों के मुकाबले अच्छी परिस्थिति में हैं, जिनके गाँवों के पास विकास की कोई परियोजनाएं नहीं आई। यह उचित नहीं कि विकास से अछूते गाँवों के लोग व आदिवासी, विज्ञान और तकनीक के फलस्वरूप बेहतर स्वास्थ्य और अधिक गुणवत्तापूर्ण जीवन के लाभों को चखे बगैर उन्हीं परिस्थितियों में बने रहें।”

तो अब देश के सर्वोच्य न्यायाधिपतियों ने बड़े बाँधों के गुणों को बेलाग अपना जोरदार समर्थन दे दिया है। देश के हर व्यक्ति को, जिसमें न्यायाधीश मी शामिल हैं. इन मामलों पर अपने मत रखने का हक है। क्षोभ की बात यह है कि ऐसे व्यक्तिगत मत किसी न्यायालय के फैसले के रूप में परोसे जाएँ। ऐसा इसलिए क्योंकि एक न्यायाधीश के लिए यह आवश्यक है कि वे मुद्दों का निर्णय उनके सामने रखे गए ठोस प्रमाणों के आधार पर करें, न कि अपने व्यक्तिगत मतों के आधार पर। यहाँ ये कथन एक ऐसे मामले के संदर्भ में हैं जहाँ व्यापक स्तर पर बड़े बांधों की वांछनीयता और व्यावहारिकता मुद्दा नहीं था, और जहाँ न्यायालय ने बार-बार याचिकाकर्ताओं को निर्देशित किया कि वे इस बाबत कोई दलीलें न रखें। उतनी ही व्यथित करने वाली बात यह है कि ये कथन न्यायाधीशों के समक्ष इन तथ्यों पर किसी भी प्रस्तुत प्रमाण के न होते हुए किए गए है। बगैर रजामंदी विस्थापित किए गए लोगों की समस्याओं, और बाँध के जलग्रहण क्षेत्र, कमान क्षेत्र व बाँध के बाद वाले नदी के इलाकों की पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले दूरगामी दुष्प्रभावों के विषय में बढ़ती समझ के चलते बड़े बाँधों का मुद्दा पिछले कुछ वर्षों में अत्यंत विवादास्पद हो चला है। अधिकतर विकसित देशों ने बड़े बाँधों का निर्माण बंद कर दिया है और उनमें से कुछ को तो तोडना, ढहाना भी शुरू कर दिया है। हाल ही में, विश्व बैंक ने दुनिया भर में बड़े बाँधों के औचित्य का पुनरावलोकन करने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय आयोग का गठन किया। ‘वर्ल्ड कमीशन ऑन कैम्स’ (डब्ल्यू सी. डी.) में बाँध संबंधी सभी प्रमुख दावेदारों के प्रतिनिधि शामिल हैं, जिनमें बाँध निर्माण उद्योग के प्रतिनिधि भी है। डब्ल्यू. सी. डी. ने हाल ही में अपने ‘भारतीय राष्ट्रीय ‘अध्ययन’ (India Country Study) को प्रकाशित किया है। यह इस देश में बड़े बाँधों के प्रभाव का काफी निराशाजनक चित्र प्रस्तुत करता है।

इस रिपोर्ट के अनुसार “एक व्यवस्थित तरीके से लागत को कम आंका जाता है और फायदों को बढ़ा-चढ़ाकर रखा जाता है, ताकि यह दर्शाया जा सके कि आवश्यक लाभ लागत अनुपात को हासिल कर लिया गया है। कि इसके बाद वास्तविक क्रियान्वयन के समय, लागतों में बड़ी मात्रा में वृद्धि लंबे विलंब और परियोजना की रूपरेखा व विस्तार में फेरबदल होते नजर आते हैं। इसके विपरीत फायदे अनुमानित आँकड़ों से कहीं कम ही मिल पाते हैं जैसा कि वास्तविक सिंचित क्षेत्रफल और अपेक्षा से कहीं कम हुए उत्पादन से झलकता है। ” रिपोर्ट यह निष्कर्ष निकालती है कि विशाल व मध्य सिंचाई परियोजनाएं अधिकतर व्यावहारिक नहीं है। जलऊर्जा पर रिपोर्ट का निष्कर्ष है “ऊँचे लागत मूल्यों, प्रक्रिया में लगने वाले लंबे समय और सामाजिक पर्यावरणीय मूल्यों के चलते, अन्य उपायों के मुकाबले जलऊर्जा बेहतर उपाय नहीं है।” यह निष्कर्ष भारत की कई पनबिजली परियोजनाओं के काम के विस्तृत अध्ययन के बाद निकाले गए हैं। इसके विपरीत न्यायाधीशों की बगैर किसी प्रमाण के की गई अतिरंजित व्याख्या को देखें, “पनबिजली परियोजनाओं में बिजली उत्पादन के खर्च उल्लेखनीय रूप से कम हैं। “

डब्ल्यू. सी. डी. का ‘भारत अध्ययन’ यह अनुमान लगाता है कि हमारे देश में 5.6 करोड़ व्यक्ति जिनमें 62 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग हैं. बड़े बाँधों की वजह से बगैर रजामंदी के विस्थापित हुए हैं और 50 लाख हेक्टर से अधिक जंगल इन बाँधों की डूब में आए हैं। न्यायाधीशों के बगैर प्रमाण के कथन के विपरीत, यह रिपोर्ट कहती है “इन बाँधों के बिजली व सिंचाई के फायदे भी आमतौर पर बाँध प्रभावित और अन्य गरीब समुदायों को दरकिनार करके बड़ी जमीन वाले बड़े किसानों, शहरी उपभोक्ताओं और अन्य संपन्न लोगों के हिस्से आते हैं। निष्कर्ष में रिपोर्ट कहती है कि “बड़े बाँधों के मूल्य व लागत के वितरण, सामाजिक, आर्थिक विषमताओं को बढ़ावा देते ही नजर आते हैं।” सरदार सरोवर परियोजना पर विशेष रूप से, विश्व बैंक ने एक उच्च स्तरीय स्वतंत्र पुनरावलोकन समिति (जिसे मोर्स समिति के नाम से जाना जाता है) को नियुक्त किया था। इस समिति ने दस माह के गहन अध्ययन के बाद जून 1992 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की रिपोर्ट के निष्कर्ष है

“ऐसे महत्वपूर्ण पूर्वानुमान जिन पर ये परियोजनाएं आधारित हैं, अब या तो बेबुनियाद माने जा चुके हैं या फिर सवालों के घेरे में है यह भी साफ है कि परिणामों की पूरी समझ के बिना ही कई सामाजिक व पर्यावरण संबंधी सौदे किए जा चुके है, और अभी भी जारी है। इसके फलस्वरूप फायदों को बढ़ा-चढ़ाकर रखा जाता है जबकि सामाजिक और पर्यावरणीय मूल्य, लगातार कम करके रखे जाते हैं। विश्लेषणों का स्थान दावों ने ले लिया है।”

“हमें लगता है कि सरदार सरोवर परियोजनाएं, अपने वर्तमान स्वरूप में त्रुटिपूर्ण है जैसी परिस्थितियां हैं, उनमें इन परियोजनाओं द्वारा विस्थापित सभी लोगों का पुनर्स्थापन और पुनर्वास संभव ही नहीं है। और यह भी कि इन परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभावों पर न कायदे से विचार किया गया है न उन पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है।”

“सरदार सरोवर के पर्यावरणीय पक्ष का इतिहास नियमों को दरकिनार करने का इतिहास है। उसके प्रभावों संबंधी कोई विस्तृत व्याख्या नहीं की गई है। पर्यावरण संबंधी समस्याओं के स्वरूप व विस्तार और उनके समाधान अब भी पकड़ से बाहर है।”

“यह साफ है कि इंजीनियरिंग और आर्थिक दबावों ने परियोजना को मानवीय और पर्यावरण संबंधी सरोकारों की अवहेलना करने की ओर धकेला है। ऐसे सामाजिक और पर्यावरणीय सौदे किए गए हैं जिनका समर्थन करना आज के दौर में संभव ही नहीं।”

इतने प्रबल तर्कों के साथ रखी गई इस उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट को न्यायमूर्ति किरपाल के फैसले में यह कहकर नजरअंदाज कर दिया गया है। कि इसे विश्व बैंक या भारत सरकार ने स्वीकार नहीं किया था। जब भी न्यायालय सरकारी समितियों से असंतुष्ट हो; वह खुद नियमित रूप से विशेष •समितियों को नियुक्त करता है, और ऐसी समितियों की रपटों पर कार्यवाही भी करता है। परन्तु इस मामले में आश्चर्यजनक बात यह है कि वह विश्व बैंक और भारत सरकार का अनुमोदन न पाने की वजह से एक रिपोर्ट की ओर देखने से भी इंकार करता है। सरदार सरोवर परियोजना के कुछ खास पहलुओं पर नज़र डालने के लिए भारत सरकार द्वारा गठित पाँच सदस्यीय समूह की दो रपटों के साथ भी लगभग यही सलूक किया गया है। इस पाँच सदस्यीय समूह ने साफ शब्दों में कहा है कि एक पुनर्वास मास्टर प्लान के बनाए जाने की आवश्यकता है जिसमें, “ऐसे सभी वर्गों, समूहों, समुदायों और व्यक्तियों की पूरी गणना की जा सके, जो किसी भी तरह प्रभावित हैं। इनमें नहर से प्रभावित होने वाले व्यक्ति बाँध के बाद के नदी के इलाकों में प्रभावित व्यक्ति आवश्यक सामान व सेवाएं प्रदान करने वाले समूह व व्यक्ति आदि सभी शामिल किए जा सकें, ताकि नियोजन के लिए आवश्यक जानकारियों का आधार अधिक से अधिक व्यापक बन सके। बड़ी संख्या में वर्ग विशेष के अनुरूप पुनर्वास पैकेज बनाए जाने चाहिए।” इसके बावजूद न्यायालय का कहना है कि विस्थापितों के अन्य वर्गों के पुनर्वास की कोई आवश्यकता नहीं, ना ही वह इस हेतु कोई आदेश, कोई करार देता है।

पाँच सदस्यीय समूह, लगभग सभी आधिकारिक एजेंसियां और वस्तुतः नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण स्वयं इस बात पर जोर देते हैं कि विस्थापितों का सामुदायिक पुनर्वास आवश्यक है। उनके अनुसार एक गाँव के विस्थापितों का यह हक है कि यदि वे चाहें तो उन्हें इकट्टा ही पुनर्स्थापित किया जाए। यह तो नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के मास्टर प्लान में ही कहा गया है कि “विस्थापन के तुरन्त बाद… विस्थापितों को उनकी पसंद के अनुसार ग्रामीण इकाइयों, ग्रामीण खण्डों अथवा परिवारों के रूप में दोबारा बसाया जाएगा।” यही बात सभी राज्य सरकारों, नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के राहत व पुनर्वास उपसमूह के साथ-साथ सभी मॉनिटरिंग एजेंसियों ने भी दोहरायी थी। इस सबके बावजूद न्यायालय इस बात पर कायम है कि इन अधिकतर आदिवासी विस्थापितों के लिए सामुदायिक पुनर्वास आवश्यक नहीं है।

पर्यावरणीय मंजूरी

न्यायमूर्ति भरूचा ने अपने अल्पमत निर्णय में परियोजना की पर्यावरणीय मंजूरी के विषय में यह कहते हुए ध्यान दिलाया है कि मंजूरी से पहले की अधिकारिक टिप्पणियों में, यहाँ तक कि मंजूरी के सशर्त आदेश में ही, यह तथ्य स्पष्ट होता है कि उस समय तक बहुत बुनियादी पर्यावरण प्रभाव अध्ययन भी नहीं किए गए थे। यह बात पर्यावरण मंत्रालय द्वारा ही दर्ज की गई कि, “पर्यावरण, वन एवं वन्य जीवन मंत्रालय का यह मत है कि चाहे कार्यरूप में हो या अध्ययनों के मार्फत, जो कुछ भी अब तक किया गया है वह बहुत अधिक नहीं है, बल्कि कई मामले तो अभी शुरुआती और प्राथमिक चरणों में ही हैं।” प्रधानमंत्री को भेजी गई अपनी टिप्पणी में जल संसाधन मंत्रालय ने कहा है- “पुनर्वास की व्यापकता, जिसमें भारी संख्या में आदिवासी शामिल हैं, जैब विविधता संपन्न व्यापक वन क्षेत्र का नुकसान और परियोजना की अतिविशाल लागत को ध्यान में रखते हुए, और यह देखते हुए कि अनिवार्य पक्षों पर अभी भी आधारभूत सूचनाएं उपलब्ध नहीं हैं, केवल एक ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ये परियोजनाएं अभी स्वीकृति के लिए तैयार नहीं हैं।” इन हालातों के बावजूद परियोजना को जून 1997 में सशर्त पर्यावरणीय मंजूरी दे दी गई। जैसा कि न्यायमूर्ति भरूचा द्वारा इंगित किया गया, इन शर्तों का भी उल्लंघन हुआ है। आज तक भी परियोजना का कोई समग्र पर्यावरण प्रभाव अध्ययन नहीं हो सका है। फिर भी परियोजना को आगे बढ़ने की अनुमति दी जा रही है। इसी वजह से उन्होंने परियोजना के विस्तृत पर्यावरण प्रभाव अध्ययन किए जाने का निर्देश दिया है और आगे के निर्माण कार्य को तब तक रोके जाने की बात कही है जब तक अध्ययन पूरा कर मंजूरी नहीं दे दी जाती।

परन्तु न्यायमूर्ति किरपाल ने बहुमत निर्णय में इस बात को कायम रखा है कि “राहत व पुनर्वास के क्रियान्वयन के मुद्दे के अतिरिक्त बाँध की ऊँचाई, डूब के विस्तार, पर्यावरणीय अध्ययन व मंजूरी, जलविज्ञान, भूकम्पनीयता व अन्य मुद्दों से संबंधित शिकायतों को इस विलंबित परिस्थिति में उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती ।” आश्चर्य की बात है कि यह कथन उन न्यायाधीशों का है जिन्होंने प्रदूषण और वन कटाई के मामलों में कड़े निर्देश जारी कर ‘पर्यावरण मित्र न्यायाधीशों’ के रूप में प्रसिद्धि पाई है। ऐसा कह चुकने के बाद बहुमत फैसला आगे कहता है कि “पर्यावरण संबंधी सभी मुद्दे ध्यान में रखे गए हैं और नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण (एन. सी. ए.) के पर्यावरण उपसमूह द्वारा उन्हें देखा समझा जा रहा है।” बहुमत फैसला, एन. सी. ए. और उसके उपसमूहों में अपना पूर्ण विश्वास व्यक्त करता है। उसके अनुसार, “यह मानना सम्भव नहीं है कि एन. सी. ए. को एक स्वतंत्र प्राधिकरण न माना जाए।” यह इस तथ्य के बावजूद है कि एन. सी. ए. ने लगातार बाँध को उसके अपने पुनर्वास उप समूह द्वारा मिली अनुमति के बगैर आगे के निर्माण के लिए मंजूरी दी है। और यह भी कि इसी कारण से न्यायालय ने 1995 से 1999 के बीच चार वर्ष तक बाँध निर्माण के काम को रोकने का आदेश दिया था।

यह बहुत दुःख की बात है कि, न्यायालय ने बाँध के 90 मीटर की ऊँचाई तक तुरन्त निर्माण की जो अनुमति दी है वह एन. सी. ए. की ही 1999 के प्रारम्भ में दी गई मंजूरी के आधार पर है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि मध्यप्रदेश सरकार ने खुद स्वीकार किया था कि वह इस ऊँचाई पर प्रभावित होने वाले कम से कम 156 परिवारों (जिनका म. प्र. में पुनर्वास किया जाना है) को कृषि भूमि देने की परिस्थिति में नहीं है। न्यायालय ने तो स्वयं दर्ज किया है कि 90 मीटर की ऊँचाई पर प्रभावित म. प्र. के 6 गाँवों में नियमानुसार भूमि अधिग्रहण नहीं हुआ है। इसका अर्थ यह है कि 90 मीटर तक का यह निर्माण नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण का उल्लंघन करता है जिसके आदेशानुसार किसी भी परिस्थिति में किसी विस्थापित की ज़मीन को तब तक जलमग्न नहीं किया जा सकता जब तक उनका पुनर्वास न हो गया हो।

ऐसे में इस बहुमत फैसले को समझने का इकलौता तरीका, केवल यह बचता है कि उसे सामान्यतः बड़े बाँधों और विशेषकर इस परियोजना की वांछनीयता के विषय में उसके लेखकों के पूर्वाग्रहों और मतों के संदर्भ में ही देखा जाए। उपरोक्त गद्यांशों में यह साफ झलकता है। नर्मदा बचाओ आंदोलन इस मामले को न्यायालय में ले जाने में अनिच्छुक था, क्योंकि आंदोलन में कई लोग न्यायालय को संपन्न, शक्तिशाली लोगों व प्रभावशाली वर्ग के साधन के रूप में देखते थे। उस समय, मैंने उन्हें न्यायालय में आने हेतु राजी किया, क्योंकि मुझे अधिक भरोसा था। परन्तु मुझे स्वीकारना होगा कि मैं गलत साबित हुआ हूँ। यह फैसला निश्चित रूप से उन सब लोगों के विश्वास को हिलाएगा, जो राज्य और शक्तिशाली निहित स्वार्थों के आक्रमण से कमज़ोर और दबे हुए तबकों के अधिकारों को बचाने और उन्हें सुरक्षित रखने में न्यायालय को सक्षम मानते हैं।

ऐसे फैसलों के चलते वह दिन दूर नहीं जब लोग न्यायालयों को एक भ्रष्ट व्यवस्था को वैधता प्रदान करने वाले ढाँचे के रूप में पहचानने लगेंगे।

(प्रशांत भूषण सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। वे अधिवक्ता शांतिभूषण के साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। उनका यह आलेख हिन्दुस्तान टाइम्स में 20 अक्टूबर, 2000 को प्रकाशित हुआ था। अनुवाद – रमा राव।)

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