हम सब मिलकर सोचते हैं न, बदलाव कैसे होगा
– सुनीती सु.र.
हमें नया ‘चरखा’ ढूँढना पड़ेगा, जो संघर्ष और नवनिर्माण दोनों का प्रतीक हो
कुछ पचीस साल पहले हम लोगों ने एक सपने की बुनाई शुरू की थी। बुजुगों द्वारा बोये हुए कपास की ही खेती कर उसका सूत निकाल कर हमने यह बुनाई शुरू की। उसका संदर्भ या स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत को सहेजने और संविधान के मूल्यों को बचाने और उसे लेकर आगे बढ़ने का उस दौर में, जब अर्थनीति वैश्वीकरण निजीकरण उदारीकरण की ओर करवट ले रही थी, बाबरी मस्जिद विवाद के नाम पर साप्रदायिकता की राजनीति चल रही थी और उसी समय विस्थापन- विषमता और विनाश बढ़ाने वाली विकास नीति देश पर हावी हो रही थी, तब जीने का अधिकार, प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय समूहों का पहला अधिकार, समता- सादगी- स्वावलंबन आदि सोच ले कर हम सब ने मिल कर जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय शुरू किया।
समन्वय की प्रक्रिया के कुछ फायदे थे, कुछ मर्यादाएँ थी। जैसे, ढीला-ढीला ढाँचा होने के कारण आयोजना की स्वतंत्रता, स्वायत्तता बनी रहते हुए भी सामूहिक निर्णय प्रक्रिया के आधार पर हम अनेकों मुद्दे ले कर आगे बढ़ते गये। हमारी अपनी लड़ाइयों को भी समन्वय प्रक्रिया की ताकत मिली और अपनी-अपनी लड़ाइयों की सामूहिक ताकत से समन्वय की ताकत बढ़ी। कुछ राजनीतिक निर्णय भी हमारे दवाब के कारण फलीभूत हुए जैसे कई लोकतांत्रिक कानून बने और कुछ पॉलिसी में बदलाव आया। हमारे कुछ आंदोलनों को कुछ हद तक या एक आध बार पूरी सफलता भी मिली। हम खास कर विस्थापन की कगार पर खड़े कई समूहों का विस्थापन रोकने में कामयाब हुए। उन समूहों को इन आंदोलनों से व्यवस्था से लड़कर अपने हक़ माँग ने की ताकत जरूर मिली।
लेकिन क्या उससे राज्य के चरित्र में कुछ सकारात्मक बदलाव आया? इसका जवाब नकारात्मक है। उल्टा आज के रोज राजनीति पर कार्पोरेट और सांप्रदायिकता का फंदा कसता जाता हुआ दिखाई दे रहा है।
जवाबों की तलाश में कुछ सवाल :
पिछले बीस सालों की इस पूरी प्रक्रिया को देखते हुए मन में कुछ सवाल उठते ‘हैं। जवाब केवल ‘हाँ’ या ‘न’ में नहीं, बल्कि कठोर समीक्षा द्वारा हमें उनसे भिड़ना चाहिए, उनके जवाब ढूंढने चाहिए।
ये सवाल कुछ इस प्रकार हैं:
1. हमारे इन प्रामाणिक और निरंतर प्रयासों के बावजूद हमारी लड़ाइयाँ कितना आगे बढ़ीं?
2. जिन तबकों के साथ हम उनके सवालों पर काम कर रहे हैं, उनके निजी तथा सामूहिक जीवन में क्या बदलाव आए?
3. जीवन के प्रति उनकी आकांक्षाएँ कहाँ तक बदली?
4. जिस वैकल्पिक विकास नीति तथा जीवनशैली की हम बात करते है, क्या वह इन समूहों को स्वीकार्य है?
5. इन समूहों के निजी और सामुहिक चरित्र में, सामाजिक समता के मुद्दों पर कुछ बदलाव आये या नहीं जैसे कि, क्या जातिप्रथा का आधार डगमगाया? महिलाओं का सम्मान और सुरक्षा बढ़ा ? उपभोग के वस्तुओं का इस्तमाल कम हुआ? निजी जिंदगी में हिंसा घटी या बढी? सत्य का आग्रह बढ़ा? निर्भयता बढ़ी ? रिश्वतखोरी कम हुई ? सामूहिक निर्णय प्रक्रिया बढी?
6. आम समाज में हमारे मुद्दे कहाँ तक पहुँचे? कहाँ तक स्वीकृत किये गये? व्यापक परिवर्तन की दिशा में हमारे आंदोलनों की वजह से कुछ कदम आगे बढ़े?
7. क्या हमारे मुद्दों का राजनीति पर असर पड़ा? अगर हाँ, तो किस प्रकार और कितना? उसकी मिसाल क्या है?
8. इन सब मुद्दों की प्रामाणिकता से जवाब देने के बाद क्या हम अपनी भूमिका, संगठनात्मक ढाँचा, रणनीति, कार्यक्रम के बारे में पुनर्विचार करना चाहेंगे? अगर हाँ, तो किस तरह?
जब मैं इन सवालों के जवाब ढूँढने जाती हूँ, तो बार बार मुझे हमारी सीमाओं का ख्याल आ जाता है। मुझे दिखता है कि हमारी आवाज़ आम समाज तक नहीं पहुँच पा रही है। अगर पहुँच रही है तो वह उसे जँच नहीं रही है। हमारा कार्य “फायरब्रिगेड” जैसा- जहाँ आग लगे वहाँ पानी ले कर दौड़ने वाला सा हो गया है। हमारी सारी माँगें सरकार या न्यायालय के प्रति हैं। इसलिए हम उनकी दया, प्रमाणिकता और संवेदना पर निर्भर है। सामाजिक बदलाव का वाहक माने जाने वाले मध्यम वर्ग पर हमारा क्या प्रभाव है? वह तो हमें ‘विकास विरोधी’ मानता है। ग्लोबल वॉर्मिंग, कटते जंगल, सूखती नदियाँ, लूटी जाती हुई ज़मीन, कॉर्पोरेटों का सब संसाधनों पर कब्जा, और हर रोज बदतर और असुरक्षित बनता जानेवाला मध्यवर्ग का अपना ही जीवन- यह सब वास्तविकता देखते हुए भी उनके आँखों पर से ‘विकास’ का स्थापित चश्मा नहीं हटता। शासन-प्रशासन न्याय व्यवस्था पुलिस सबसे हर रोज अपमान झेल कर भी वे उस व्यवस्था को नहीं ललकार पा रहे हैं। ऐसा क्यों? जनता कुछ करना ही नहीं चाहती, मुझे ऐसा नहीं लगता। जन लोकपाल आंदोलन के दौर में कुछ कर दिखाने की ‘इच्छा’ जनता ने प्रकट की थी। उसे परिवर्तन की ताकत बनाने में हम कम पड़ गये।
जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के कई साथी संसदीय राजनीति में हस्तक्षेप के इरादे से आम आदमी पार्टी में गए और आम आदमी पार्टी की तरफ से चुनाव में भी उतरें। लेकिन अपने ही प्रभाव क्षेत्र में वे बुरी तरह से हार गये। इससे दो तरह का संदेश समाज और खासकर राजनीति में गया एक आप इस राजनीती में खड़े नहीं हो पायेंगे। और दूसरा- जी और भी गंभीर है, कि अब तक आप संसदीय राजनीति से बाहर रह कर बात करते थे। जब आपको एहसास हुआ कि चुनावी राजनीति में हस्तक्षेप कर सकते हैं (खासकर ‘आप’ की दिल्ली में जीत के कारण) तो आपने अपनी भूमिका बदल दी और चुनावी राजनीति में कूद पड़े। इसलिए, जिस ‘संसदीय राजनीति से अलग रहने की बात हम कर रहे थे, वह महज एक रणनीति थी। तो अब हमारी ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है।
चुनावी राजनीति पर कॉर्पोरेट ताक़तों का हावी होना और उनके पैसों से चुन कर आयी हुई पार्टी द्वारा उन्हीं के हित में सत्ता चलाना – यह आज बहुत ही भद्दे रूप में सामने आया है। अब इस ताक़त को हम किस तरह चुनौती देने वाले हैं, यह सवाल हमारे सामने है।
मोदी सरकार कॉर्पोरेटों की सरकार होगी, यह तो पहले से ही पता था। वह अपना हिन्दुत्व का एजेंडा चलाएगी और समय आने पर ‘गुजरात मॉडल’ अपनाकर चलाएगी, इससे यही अपेक्षा है। लेकिन वे अपना एजेंडा बहुत ही चालाकी से चला रहे है। एक तरफ बहुमत के आधार पर कायदे-कानून बदलना, नीतियाँ बदलना और उसके द्वारा कॉर्पोरेट को लूट की छूट देना, दूसरी तरफ विदेशों में जा जा कर भारत के ‘सस्ते संसाधन और सस्ते श्रम को दुनिया के बाजार में खड़े करना, तीसरी तरफ ‘राष्ट्रवाद’ की चर्चा चलाना और यह सब ‘गांधीजी’ का नाम ले कर करना इन सबसे हम कैसे जूझने वाले हैं और जरूरत पड़ने पर इसका पर्दाफाश कैसे करनेवाले हैं?
आज, जब मुख्यधारा का एक भी राजनीतिक दल इस चालाक खेल का मुकाबला नहीं कर रहा है तब हम मुकाबला किस तरह करने वाले हैं? ख़ासकर, जिन वंचित समाज के जीने के हक़ की लड़ाइयाँ हम सब लड़ रहे हैं, उन लड़ाइयों को हम किस तरह नतीजे की ओर आगे बढ़ाने वाले है? ‘लड़ेंगे जीतेंगे’ यह हमारा नारा ज़रूर है, लेकिन जिनके ख़िलाफ़ यह लड़ाई है. उनके ही सामने हम न्याय की माँग करते रहते हैं। लड़ेंगे, तो जीतेंगे कैसे?
व्यापक परिवर्तन की ओर
इन सारे सवालों के जबाब हमें ढूँढने होगे। इनके जवाब हमारे सम्मेलनों में पारित होने वाले प्रस्तावों में शायद नहीं मिलेंगे। जवाब गंभीरता से, मिल कर, सोच कर ढूँढने होंगे। लोकतांत्रिक ही क्यूँ न हो, यह व्यवस्था अगर हमारे सवालों के जबाब नहीं दे पाती और उलटा लोकतंत्र के नाम पर उन सवालों को अधिक जटिल और शोषण वाला बना देती है, तो हमें इस व्यवस्था पर भी सवाल खड़े करने पड़ेंगे। किसी तत्ववेत्ता ने कहा है कि ‘लोकशाही और समाजवाद- ये पूजीवाद की संताने हैं’ – अगर हमारा लोकतंत्र पूंजीवाद के आधार पर ही चलता है, तो उसका विकल्प खोजना होगा। समाजवाद की प्री-कंडिशन अगर पूंजीवाद है। तो उस पर भी पुनर्विचार करना होगा। हमारा विकल्प अहिंसक, सर्वसमावेशी, सत्याग्रही हो यह तो उसकी प्री-कंडिशन होगी लेकिन इस केंद्रित व्यवस्था पर भी पुनर्विचार करना पड़ेगा। इसका भी चिंतन हमें करना होगा कि किस तरह की विकेंद्रित व्यवस्था की खोज हम करने जा रहे हैं, और वह कैसे आयेगी। हम लगातार व्यवस्था पर सवाल खड़े करते हैं, लेकिन हम समाज के दायित्व और जिम्मेदारी के बारे में क्या सोचते हैं? भीषण विषमता के चलते हम ऐशीराम और उपभोगवादी जीवनशैली पर कठोर टिप्पणी जरूर करते हैं, लेकिन उसे रोकने के लिए, बदलने के लिए हम क्या प्रस्ताव देते हैं? हमारे आन्दोलनों के साथ चलने वाले पीड़ित समाज से पूछा जाये तो उसके विकास की अवधारणा भी शायद वैसी ही होगी सभी को हाइवे, पक्के घर, दरवाजे पर मोटरगाड़ी न हो तो कम से कम बाईक की आस है ही। शहरों के श्रमिकों के जीने का हक हम माँग ते है, लेकिन शहर ख़ास कर महानगर जो ग्रामीण संसाधनों को चूस कर बनता है जैसे विकृत ढाँचे के चलते ही हक छीना जा रहा है – यह सब चर्चा क्या हम छेड़ पाये हैं?
अगर किसान खेती बेचना या छोड़ना चाहता है तो ऐसा क्यूं है- यह परिस्थिति कैसे बदलेगी? किसान खेत मज़दूर की आमदनी आत्मसम्मान के साथ कैसे बढ़ेगी? गाँवों तक मूलभूत सुविधाएँ कैसे पहुचेंगी।।। ये मुद्दे हमें अपने काम में जोड़ने पड़ेंगे। शहर नियोजन तथा शहरी गरीबों के आवास जैसे मुद्दों पर कार्य करते हुए हमें ‘महानगर’ की संकल्पना पर भी विकल्प के साथ प्रश्नचिह्न लगाना पड़ेगा।
हम मुद्दों को समग्रता से देखते ज़रूर हैं लेकिन कार्यक्रम के रूप में वे तात्कालिक सवाल के जवाब में ही प्रकट होता है। यह शायद हालात का सरलीकरण लगे। मैं जानती हूँ कि समाज की स्थिति इससे कई गुना जटिल है। लेकिन उसके साथ हमें केवल टकराना ही नहीं है, समझना है, समझाना है। हमारी भाषा, संवाद प्रबोधन- रचना संघर्ष की होनी चाहिए और कार्यक्रम केवल प्रचार के लिए नहीं होने चाहिए।
यह कैसे होगा, इस सवाल का जवाब अभी मेरे पास नहीं है। लेकिन एक दिशा मुझे बार-बार अपनी तरफ खींचती है, जिसका ज़िक्र यहाँ करना चाहूँगी। मुझे लगता। है कि व्यापक परिवर्तन के लिए, समाज की धारणाओं में जीवन के हर क्षेत्र में बदलाव लाने के लिए, हमारा आह्वान व्यापक समाज को ही होना चाहिए। जो आह्वान समाज के हर तबके को अपना लगे। न्यायोचित लगे। इसके लिए व्यापक जागरण की जरूरत है। एक राष्ट्रीय आंदोलन की ज़रूरत है। हमारा स्वतंत्रता का आंदोलन कुछ इस प्रकार का ही रहा था।
आज, वह आन्दोलन करीब सौ साल पुराना इतिहास बन गया है. हालात भी काफी बदल गये हैं। उस प्रकार का शोषण शायद आज नहीं रहा, लेकिन जातीय अस्मिता और उन पर आधारित संगठनों से जातीयता ज़्यादा ही बढ़ गयी है, जिस पर हमें ध्यान देना ही पड़ेगा। हमारी सोच, सभी विषमताओं को समझते हुए, उन्हें समता की दिशा में मोड़ते हुए आगे बढ़ने की होगी। ‘सर्वोदय” जिसमें ‘सब का (प्रकृति समेत) उदय/विकास’ निहित है और उसमें भी ‘अंत्योदय’ यानी ‘अंतिम व्यक्ति को विकास का प्रथम अवसर यह पहला कदम हो, तो बाकी सारे विभाजन पीछे छोड़ कर आगे बढ़ना संभव है। क्या यह आह्वान हम आम समाज को कर सकेंगे?
साथी हाथ बढ़ाना
यह कैसे हो, इसका ब्लू प्रिंट मेरे पास नहीं है। वह मेरी प्रतिभा भी नहीं है। लेकिन इस हालत से बाहर निकलने के लिए हम कुछ प्रयास जरूर कर सकते हैं। उनके कुछ बिंदू इस प्रकार हो सकते हैं –
नये ज़माने के नये आह्नानों को ध्यान में रखते हुए हमारे तत्व, विचारधारा, रणनीति, कार्यक्रमों का पुनः निर्धारण जिसमें राज्य से ले कर समाज तक हम क्या अपील करना चाहते हैं, यह तय हो। यह प्रयास हमें हमारी व्यापक बिरादरी को ले कर करना पड़ेगा। यह सोच नयी परिभाषा में, कालसुसंगत रूप में समाज के सामने रखनी पड़ेगी। यह एक निरंतर प्रक्रिया होगी और हमारे मुद्दों के साथ-साथ ही चलानी पड़ेगी।
हमारा यानी एनएपीएम के संगठन को भी ताक़तवर बनाना पड़ेगा। आज हमारे प्रमुख कार्यकर्ता भी अपने-अपने आंदोलनों-कामों में इतना व्यस्त होते हैं कि उनके पास समन्वय के संगठनात्मक, संरचनात्मक कार्य के लिए पर्याप्त समय नहीं रहता। इसके अलावा कमिटमेंट के साथ कार्यकर्ताओं की टीम की ज़रूरत होगी। इसके लिए शिविर, कार्यशालाओं से ले कर स्थानिक समूहों में वैचारिक स्पष्टता के आधार पर कार्यकर्ता तैयार करने होंगे। कार्यकर्ताओं की ज़रूरतों का. आकांक्षाओं का, आशा-निराशा का भी ध्यान रखना पड़ेगा।
हमें समविचारियों की व्यापक बिरादरी तैयार करनी पड़ेगी। यह भूमिका न्यूनतम वैचारिक आधार पर हो। ‘बचाओ-हटाओ’ इमेज से अलग व्यापक समाज परिवर्तन के लिए (इसके लिए मुझे सर्वोदय’ शब्द ही ज्यादा उचित सूझता है) वाली नयी पहचान बनानी पड़ेगी।
‘विकास’ और ‘महासत्ता’ का भ्रम हमें ज़रूर तोड़ना है। लेकिन वह आवाज़ समाज से उठे इसलिए हमें समाज में जा कर उसे हकीकत समझानी पड़ेगी। छोटे-छोटे कार्यक्रम करने पड़ेंगे। कई बार समाज कुछ करना चाहता है, लेकिन वह कर सके ऐसा कार्यक्रम हम नहीं दे पाते। हमें नया ‘चरखा’ ढूंढना पड़ेगा, जो संघर्ष और नवनिर्माण, दोनों का प्रतीक होगा।
हमें संसदीय राजनीति और उसका आज का सर्वव्यापी रूप समझते हुए, बाहर से सामाजिक दबाव द्वारा उसे सही दिशा में ले जाने का प्रयास जारी रखना होगा। संसदीय राजनीति में मौजूद समविचारी साथियों को जोड़ना होगा। समविचारी संसदीय राजनीति को हमें मज़बूत करना होगा।
पुराने माध्यमों के साथ-साथ, नये सोशल मीडिया जैसे माध्यमों का हम प्रभावशाली इस्तेमाल करें। मीडिया में हमारे कई प्रगतिशील मित्र अपनी भूमिका के साथ जूझ रहें हैं, उन्हें ताक़त देनी होगी। कई कार्यकर्ता अपनी कला – जैसे फ़िल्म, डॉक्यूमेंट्री, नाटक, गीत, चित्र के ज़रिए काम कर रहे हैं। उन्हें जोड़ना होगा। वे शायद अपने ऊपर कोई लेबल नहीं लगवाना चाहेंगे, फिर भी हम उनके मित्र तो बन ही सकते हैं।
समाज में बढ़ती हिंसा के बारे में हमारी तुरंत और तीव्र प्रतिक्रिया हो। हमारे कार्यों के साथ-साथ हर तरह के अन्यायग्रस्तों को हमारा साथ हो।
हालांकि, यह सब हम कई बार कह चुके हैं। यह इच्छा भी रखते हैं। लेकिन हमारे अपने संगठन के अभाव के कारण, हमारी अपनी कार्यव्यस्तता के कारण, इस तरफ पूरा ध्यान नहीं दे पाते और फिर हमारी ताक़त सीमित रह जाने का यह सिलसिला चलता ही रहता है। अतः समन्वय के सभी साथी इस पर गौर करे और इस दिश में सोचें।
मैं तो कहना चाहूँगी कि अगले पाँच साल का हम यही कार्यक्रम बनाएं और समीक्षा, संगठन, समन्वय के साथ आम समाज तक पहुँचने का अभियान चलायें। समाज को तोड़ कर नहीं, समाज को जोड़ कर और साथ ले कर ही हमें परिवर्तन की लड़ाई लड़नी है – सही तो यह होगा कि ‘लड़ाई’ जैसे शब्द का त्याग हम जितना जल्दी करें, उतना अच्छा होगा। परिवर्तन की दिशा में जाना है, इतना ही कहें। परिवर्तन में निर्माण भी है और जो बदलना है, उसके साथ संघर्ष भी।
साथियो, मैंने पाँच साल पहले भी यह विचार आपसे साझा किया था। आज के हालात में जब मैं इन विचारों को देखती हूँ तो देश और समाज के हालात और भी भयावह दिख रहे हैं। कश्मीर को पूरे देश से जोड़ने वाले अनुच्छेद 370 और राम मंदिर जैसे मुद्दों पर सवार सरकार की घुड़दौड़, हिन्दुत्व के एजेंडे पर जोरदार चल रही है। दूसरी तरफ भयानक मंदी का सामना करते हुए, हम बेरोजगारी, आत्महत्याएँ, निराशा के दौर से गुजर रहे हैं। तीसरी तरफ राष्ट्रवाद का उन्माद फैलाकर और लोगों का ध्यान उनकी जिंदगी के असली सवालों से भटकाकर उन्हें ‘नागरिक’ से ‘मॉब’ बनाया जा रहा है। संविधान और लोकतंत्र पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। फिर भी, इस लेख में सुझाए हुए विकल्पों-सुझावों | के अलावा फिलहाल मुझे कोई और रास्ता नहीं सूझ रहा है। इस स्थिति में हमें और गंभीरता से, ताक़त से, एकजुटता से आगे बढ़ना होगा। ‘ये वक्त की आवाज़ है, मिल के चलो’ को सार्थक बनाना होगा।