चलो उठो, चलो उठो, रोकना विनाश है । , विकास के ही नाम पर बांध का ये खेल है, सोच लो, जान लो, लाभ-हानि कितनी है ।
सिंचाई की भी भूल है, दलदल तो होनी है, गन्ने के खेत में मजदूर पिसाया है।
नर्मदा की घाटी में अब लड़ाई जारी है, बिजली का जाल है, शहरों की चाल है, तापी में न बन सकी, वही हाल होना है । राजनीति साफ है, कुर्सी पांच साल है, बांध फिर हो ना हो, अपना अपना रोना है।
न जांच है, न परख है, झूठे हिसाब है, करोंडो की लागत, गुजरात की भी लूट है।
मजदूर का घर तोड कर, किसान का हल छीन कर, देखो ये तो छोडेंगे, लाखों को उजाड कर ।
न जमीन है, न दाम है, पुनर्वास का नाम है, भुलाकर भगाने का सारा इन्तजाम है ।
मंत्री का ऐलान है, पार्टी का आह्वान है, भाई अपना सोच लो, ठेकेदार का राज है। लाभों का वादा है, मानव का सौदा है। पचास साल के लिए पीढ़ियों का रोना है।
मेधा पाटकर