इतिहास

नर्मदा नवनिर्माण अभियान: 18 साल की यात्रा – कहाँ से कहाँ तक ?

परिप्रेक्ष्य: नर्मदा घाटी के पीढ़ियों के निवासी इसे माँ रेवा ही नहीं ‘मातेसरी’ मानते हैं। 1312 किलोमीटर लंबी नर्मदा की 1 लाख चौ. किलोमीटर की घाटी में बसे किसान, मजदूर, पशुपालक, नावडीवाले केवट, कहार- मछुआरे, कुम्हार हो या व्यापारी… प्राकृतिक समृध्दी के साथ यहाँ के संसाधनों के आधार पर जीते रहे हैं। वर्षों से बहती रही नर्मदा के ही किनारे जन्म लिया था, आदिमानव ने और आदिम स्त्री के अवशेष भी पाए थे। होशंगाबाद में… नदी घाटी में, यह पुरातत्वशास्त्र का कहना है। वैसे ही ग्राम चिखल्दा, धार जिले में ही जन्मा था, आशिया खंड का पहला किसान। संस्कृति और प्रकृतिका यह समन्वय निवासीयों को देता रहा है, आजीविका के साथ जीने का आधार और इसे सुरक्षित रखते हुए निरंतर, न्यायपूर्ण, शाश्वत विकास का अधिकार!

जब नर्मदा में एक-एक बड़े बांध बनते रहे, तब इन्हीं घाटीवासियों पर होते गए अन्याय! विस्थापितों की सहभागिता और सहमति तो दूर उनके जीवनाधार जल-जंगल-जमीन पर असर और उस पर सोच समझ तथा हानिपूर्ति को सुनिश्चिती भी दुर्लक्षित होने लगी। तभी होता गया उदघोष मिट्टी तक बचाने का! सिंचाई के रास्ते खेत जमीन की बरबादी रोकने, तवा बांध से, भूकंप के खतरे जानकर, सुक्ता बांध से! नर्मदा की जलराशि विकास का आधार होते हुए, उसके उपयोग, वितरण के तौर तरीके, तकनीक पर उठे सवाल विकास की अवधारणा पर सोचने मजबूर करते गए… क्या विकास के नीव में होना ही है विस्थापन, विनाश और भुगतनी होगी विषमता भी?

सरदार सरोवर-दशकों के विवाद के बाद भी उठे सवालों के आधार क्या थे?

नर्मदा के आखरी छोर पर रहे गुजरात राज्य ने 162 फीट ऊंचा बांध बनाना तय किया, अपने ही संसाधनों के निवेश से नर्मदा का पानी सूखाग्रस्तों को देने के लिए। लेकिन उसे बढ़ाकर 531 फीट के बांध की मांग पर उठा विवाद- घाटी के किनारे बसे, पानी के हकदार रहे 3 राज्यों के – मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात के बीच! सरदार सरोवर नाम का बांध,10 साल तक बिठाये नर्मदा ट्रिब्यूनल – जलविवाद न्यायाधिकरण के फैसले के बाद ही मंजूर हुआ, विकास परियोजना के रूप में! महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के सभी राजनीतिक दलों के पूर्ण विरोध की सुनवाई पर, नर्मदा जलविवाद न्यायाधिकरण के फैसले से तय हुआ 455 फीट का महाकाय बांध और उसके पानी का बँटवारा 91% गुजरात और 9% राजस्थान राज्य को, जो नर्मदा किनारे से, उस पर आधिकार से दूर लेकिन ‘प्यासा’ था, पानी के लिए तरसता था ! महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश को मात्र स्वयं के जलग्रहण क्षेत्र से बहते पानी को ही, मर्यादा में रोकने का अधिकार मिला… और बांध से निर्मित बिजली के लाभ में हिस्सा भी। महाराष्ट्र को 27% और मध्य प्रदेश को 56% बिजली के लाभ का आश्वासन देते हुए मनाया गया। लेकिन सरदार सरोवर बांध से होने वाले हजारों परिवारों के विस्थापन और हजारों हेक्टर्स जमीन, जंगल के डूब से विनाश पर ट्रिब्यूनल के फैसले में, कानूनी आधार के साथ।

कहाँ बसाये जाएंगे उजड़नेवाले परिवार ? कितने गाँव- परिवार डूब में आएँगे? क्या उन्हें पूछा गया, क्या बताया गया, उनके हकों का दायरा? नर्मदा घाटी के प्राकृतिक पर्यावरण पर कितना होगा असर? कैसी होगी हानिपूर्ति? बांध से विकास के लाभ कितने होंगे सही साबित? आर्थिक लाभ हानि का हिसाब भी क्या आंका गया है… कितना सही और परिपूर्ण होगा लाभ लागत का अंदाज? इन सभी सवालों को लेकर खड़ी हुई नर्मदा घाटी की जनशक्ति… सतपुड़ा के पहाड़ों से लेकर मध्य प्रदेश के पश्चिम निमाड़ के मैदानी क्षेत्र तक सामाजिक कार्यकर्ता बने दुवा-शासन और जनता के बीच के! सरदार सरोवर परियोजना पर चला संघर्ष तो देखा देश और दुनिया ने और सुना शासन और न्यायपालिका ने! जनतंत्र के हर मोर्चे पर अपनी बात पहुंचाते अवकाश पाते ही संवाद कर कर आते हैं गए आंदोलनकारी!

कानूनी और मैदानी संघर्ष जो पुनर्वास की और पर्यावरण के मुद्दों पर चलाता सर्वोच्च अदालत ने बांध का कार्य रोक रखा, 4 सालों तक (1995 से लेकर 1999), तक लेकिन जब सशर्त मंजूरी दी गयी, तब उसके बाद भी शर्तों का पालन न करते हुए बांध का कार्य आगे बढ़ने से फिर जारी रहा संघर्ष… जिसके बिना, हजारों परिवारों का मध्य प्रदेश में 83 महाराष्ट्र में 14 और गुजरात में 350 वसाहटो में पुनर्वास संभव नहीं था इस कार्य में सतत मंजिल थी, निर्माण की ! संघर्ष साधन होता है, साध्य नहीI

नवनिर्माण पुनर्वास से… वैकल्पिक जमीन भूखंड अनुदान और बुनियादी सुविधाओं के साथ!

नर्मदा घाटी का कार्य अनेक मोर्चों पर आगे बढ़ने से जरूरी हो गया है कि, यह कार्य सामाजिक विश्वस्त संस्था के तहत चलाए जाये। इसमें उद्देश्य था, पारदर्शिता एवम जवाबदेहीता हर कार्य में सुनिश्चित करना ! कार्य का हिसाब शासकीय संस्थाओं के सामने रखना भी निहित था।

इसी परिप्रेक्ष्य में 2004 में गठित किया गया, नर्मदा नवनिर्माण अभियान न्यास! इस न्यास के न्यासी याने ट्रस्टी बने, घाटी के हर कार्य में रुचि रखनेवाले योगदान देने वाले वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता तथा नर्मदा घाटी के किसान- मजदूर, आदिवासी एवम मछुआरों के प्रतिनिधि ! इस नियम और कानून को पालन करने के लिए ही तो न्यास बना और विधान के साथ चला; विविध कार्यों में शामिल रहे पुनर्वास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदिI

नर्मदा घाटी में पुनर्वास स्थलों पर निर्माण भी एक चुनौती रही है! नर्मदा ट्रिब्यूनल के अनुसार जो-जो सुविधाएँ – शिक्षा पानी, बिजली, स्वास्थ, निकास की व्यवस्था, गोदाम, पंचायत भवन, पशुओं के लिए हलाव इत्यादि तैयार होनी है। उनमें ना केवल खामियाँ रही बल्कि भ्रष्टाचार भी हुआ। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के 40 अधिकारी कर्मचारियों को नौकरी से हटाना पड़ा I फिर भी गुणवत्तापूर्ण कार्य नहीं हुआ… भ्रष्टाचार की जाँच हुई उच्च न्यायालय से गठित न्यायधीश श्रवणशंकर झा आयोग से, जिसमें मौलाना अब्दुल कलाम आजाद संस्था और आईआईटी मुंबई की तकनीकी जाँच रिपोर्ट ने पूरी पोल खोल कीI 2017 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को भी अधूरा माना गया और शिकायत निवारण प्राधिकरण (GRA) को नधावित्रा से कार्य पूरा करवाने का आदेश दिया गयाI विस्थापितों की सुनवाई होकर दिए गए 28-11- 2017 के GRA के आदेश के बावजूद आज भी कहीं पानी, कई जगह निकास की नालियाँ, वसाहत तक और अंदर के रास्ते आधे अधूरे हैं, या बाकी हैI भ्रष्टाचार महत्व का कारण रहा हैI चारागाह एक भी वसाहट में ना होने से पशुपालन खत्म सा होता गया है। महाराष्ट्र और गुजरात की वसाहटो पर भी सुविधाओं की कमी, कम अधिक दिक्कतें पैदा करती रही है। कहीं स्वास्थ्य केंद्र पर डॉक्टर नहीं या साहित्य नहीं तो महाराष्ट्र में संवाद से सफलता मिलती है; गुजरात में नहीं! इसलिए निर्माण के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है… लेकिन अहिंसक।

पुनर्वास का अभियान के द्वारा चल रहा कार्य पात्रता के अनुसार वैकल्पिक कृषि भूमि, मकान के लिए भूखंड, और हर प्रकार के अनुदान नीति और कानून के अनुसार मिले यह उद्देश्य कर समाज से, न्यायपालिका और प्रशासन शासन के, हर मोर्चे पर आवाज उठाता, आकडाकीय जानकारी रखता आया है। इसी से करीबन 50000 परिवारों को पुनर्वास और करीबन 20000 परिवारों को जमीन की पात्रता मिली हैI फिर भी महाराष्ट्र में सैकड़ों, गुजरात में करीबन 150 और मध्य प्रदेश में हजार से अधिक परिवारों को जमीन और / या भूखंड नही मिला है तो मध्य प्रदेश में कुछ हजार परिवारों को एक ना एक प्रकार का अनुदान मिलना बाकी है। कई गरीब 2019 को डूब से निकालकर प्रशासन और पुलिस के सहारे टीन शेड में रखा वही आजतक सैंकडों की तादाद में, पानी, बिजली… सभी समस्याएँ भुगतते हुए राह देख रहे हैं, उनकी वंचना मिटने की!

हर राज्य में आज भी जिन परिवारों के जो पुनवास के लाभ लेने बाकी है, उनकी FACT SHEETS मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र शासन को प्रस्तुत कर चुके हैं… जवाब लेना है। भूमिहीनों में कुम्हार, केवट, कुछ दुकानदार वंचित है तो मछुआरों की 21 मत्स्यव्यवसाय सहकारी समितियों के संघ को महाराष्ट्र में पंजीयन मिला है; लेकिन 31 समितियों के प्रस्तावित संघ को देना बाकी है। पुनर्स्थापित भी जब बाकी है कईयों का, तो आजीविका के साथ पुनर्वास के लिए तो लंबी प्रक्रिया होगी ही।

नर्मदा घाटी के बर्गी से महेश्वर तक किसी भी बांध में प्रभावित परिवारों को वैकल्पिक जमीन नहीं मिली, नही हर परियोजना में सही पुनर्वास स्थल बने! सरदार सरोवर में संघर्ष नही होता, तो क्या होता? क्या यह अनावश्यक था – संघर्ष और निर्माण ?

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